बहाने

एक सच ये भी है लिखना नहीं आता और एक सच ये भी कि ये बात मान पाना नामुमकिन है।
लिखने को कुछ नहीं सूझ रहा इसलिए बहाने लिख रहा हूँ..मुझे खुद को खुश करने के सारे बहाने आते हैं।
लेकिन जब सारे बहाने एक साथ मिल कर भी कम पड़ने लगते हैं तब कुछ भी लिख देना ही सूझता है। ये कुछ भी लिख देना भी बस एक बहाना है। उदास हूँ, निराश हूँ, चिंतित भी..वजह फिर से कुछ नहीं है।
खैर, बहुत कुछ है जो आज की रात लिख दिया जाना चाहिए हर रात की तरह मगर नहीं लिखा जायेगा क्योंकि हर बात नहीं लिखी जाती। सिर्फ वही बात लिखी जाती है जो बिक सके।
बहाने बिकते हैं। उदासी भी बिकती है। आंसू भी बिकते हैं। शब्दों की चाशनी में लपेट कर हर चीज़ बिकती है। मैं भी बिक जाना चाहता हूँ इन उदासियों के साथ। मुझे खरीददार नहीं चाहिये मगर मुझे बिकना है। शायद इसलिए ताकि खुद से कह सकूँ कि मैं इतना व्यर्थ नहीं कि मुझे कोई न ख़रीदे।
बकवास कर चुका अब सो जाऊंगा। ये आज मेरा खुद को खुश करने का बहाना था।

कोई वाबस्ता नहीं बाकी

ना ग़म की कोई गुंजाइश, ना हमदम कोई साकी
मेरे सामान में आस का कोई बस्ता नहीं बाकी
करा दे मुझको ये गफ़लत मेरे जुड़ जायेंगे हिस्से
ज़माने में आईना कोई ऐसा शिकस्ता नहीं बाकी
जो मंजिल दूर पड़ी रही तो कसूर किसका था,
मुझे मालूम बस इतना कि अब रस्ता नहीं बाकी
बेच कर सपने तमाम जो अब निकला हूँ गलियों से,
खरीदने को लगता है कि कुछ सस्ता नहीं बाकी
गुज़रते हुए हर मोड़ पर दिखी थी उम्मीद लटकी सी,
पलट कर लौट आने को कोई वाबस्ता नहीं बाकी!

कुछ नहीं होना चाहता

आसमान का पंछी
रात का जुगनू
चाँद का रखवाला
रोटी का निवाला
मसान का अघोरी
पैसों की बोरी
तवायफ का आशिक़
अनाथ का सहारा
पागल, इंसान, जानकार
समझदार, पोर्नस्टार, क्रिकेटर
फोटोग्राफर, एक्टर, लेखक
एक वक़्त था ये हो जाना चाहता था
एक वक़्त है कुछ नहीं होना चाहता

संस्कृति के बीच फंसे हम

एक होता है ‘Urban culture’ और दूसरा होता है ‘rural culture’। Urban culture वालों के लिए rural culture की हर चीज़ या तो ‘ढकोसला’ होती है या ‘गंवारपन’। Rural culture वालों के लिए urban culture की हर चीज़ या तो ‘दिखावा’ होती है या ‘नंगापन’।

और फिर आती है तीसरी प्रजाति हम जैसे लोगों की जो Urban culture के ‘दिखावे’ और ‘नंगेपन’ का हिस्सा होने का दावा तो करते हैं मगर अपने अंदर से उस rural culture के ‘ढकोसले’ और ‘गंवारपन’ को नहीं निकाल पाते और यही प्रजाति समाज में मौजूद हर भसड़ की वजह बनती है।

वजह सिर्फ इतनी है कि हमें दिखावा भी करना होता है कि हम मॉडर्न हैं पर ज़मीनी हकीक़त ये होती है कि हम अपनी सोच बदल नहीं पाते। उससे भी बुरी बात ये है कि हमारा ताल्लुक हमेशा दोनों तरह के कल्चर से रहता है और इसलिए हमें दोनों समाज का डर बना रहता है। खुद को पीस कर अपना चूरन नहीं बनाने के लिए हम बीच का रास्ता अपनाते हैं और इसी चक्कर में नौटंकी मचा देते हैं जिससे कई बार हमारा कुछ नहीं बिगड़ता मगर बहुत से लोगों का बहुत कुछ बिगड़ जाता है। लेकिन अपने को क्या, अपन तो तभी रोयेंगे-गाएंगे जब अपनी नानी मरेगी।

घर की चौखट

रातों के अंधेरे ने जो पूछे
उन सवालों के जवाब तलाशते हुए
एक रोज़ घर की चौखट लाँघ देना
फिर कभी ना लौट आने को

ज़िम्मेदारियों के बोझ तले
ना कुचल दिए जाने को
बेबस हो कर खुद पर
फिर कभी तरस ना खाने को

सारे तानों को भुला कर
खुद को और रुला कर
सिसकियों में डूब कर मरती
जवानी को बचाने को

बचपन को मिटाने को
रिश्तों को भुलाने को
एक रोज़ मैं निकल जाना चाहता हूँ
हमेशा के लिए खुदगर्ज़ हो जाने को।

शौकिया दुःख

जिन बातों पर बहुत कुछ लिखा गया, उन बातों पर कभी कुछ कर लिया गया होता तो लिखने की ज़रुरत नहीं होती..
किसी ने कहा था कभी “लेखक बनने के लिए शौक़ से दुखी रहते हो।” मैं उस बात पर कुछ नहीं कह पाया था सिर्फ़ इसलिए ताकि भविष्य में कुछ लिखूँ इस पर।
वो सारी बातें जिन्हें कोई आपको यूँ ही कह जाता है कि आप कुछ करें उस बारे में, कभी पलट कर देखना वो जब खुद जब उस हाल में होता है तो क्या करता है।
बहुत कुछ लिख चुका हूँ, बहुत कुछ लिखना बाकी है। जो लिखना है वो फिर भी नहीं लिखूंगा। शौक़ पाला है लेखक बनने का तो दुख बाज़ार से खरीद कर ही लाऊंगा लिखने को क्योंकि ज़िन्दगी बड़ी अच्छी है। खुश हूँ ज़िन्दगी से। खुश हूँ हर बात से। दुख ढूंढने पर भी नहीं मिलता।
मेरे शौक़ जाने कब पूरे होंगे..मैं जाने कब दुखी हो पाउँगा..कब बनूँगा लेखक..फिलहाल शौक़ पूरा करने को जबर्दस्ती दुखी रहने की एक्टिंग सीख रहा हूँ..कोशिश जारी है, देखता हूँ कब तक लेखक बन पाता हूँ…

अभिव्यक्ति की बर्बादी

कभी-कभी अभिव्यक्ति की आज़ादी के नाम पर न्यूज़ फीड में मची भसड़ को झेल पाना मुश्किल लगता है। बहुत संयम रखने की कोशिश करता हूँ और कई बार कामयाब हो भी जाता हूँ। जब नहीं होता तो ऐसा कुछ लिखने की मजबूरी आ जाती है।
जब आप किसी नाज़ुक मुद्दे पर बकर काट रहे होते हैं और कुछ भी कहीं भी पढ़ कर उठा के अपने वॉल पर चेप देते हैं, उस वक़्त अपनी मानसिक क्षमता को आँकिये और पूछिये खुद से कि आपको इस बारे में इतनी समझ है भी कि आप इस बारे में बात भी करें? कहीं भी कुछ भी पढ़ा और सुना और गुलाटी मारने लगे।
अपनी हद तय कीजिये। फ़ोकट का इंटरनेट मिला है तो फ़ोकट का ज्ञान पेलना भी ज़रूरी नहीं है। आपकी “यूनीडायमेंशनल” सोच को प्रकट करने से पहले अपनी मानसिक औकात का परिचय खुद को दीजिये। जितने मुद्दों पर आप लिख कर अपने ज्ञान का परचम लहराते हैं, उनके आधे की भी सच्चाई जानने की कोशिश करेंगे तो दिमाग खुलेगा। दिमाग को खोलिए और पायजामा से बाहर होना बंद कीजिये। आपके लिए भी हितकर होगा और दूसरों के लिए भी।
याद रखिये अपनी अभिव्यक्ति की आज़ादी के नाम पर आप खुद को एक सोच का ग़ुलाम बना रहे हैं।

किस्मत

कितनी तड़प है न तुम्हारे अंदर,
उसे तड़पता देखने की..
जिससे बेइंतेहा मोहब्बत थी तुम्हें,
मगर उसने ठुकरा दी थी तुम्हारी चाहत..
भावनात्मक तंगी से हार कर,
आत्मदाह करने पर मजबूर किया था उसने तुम्हारे प्यार को..
और जलते-जलते तुम्हारा इश्क़ भी,
बद्दुयाएं दे रहा था उसके अहंकार को..

फिर जब मिलन हुआ उसकी राख का,
किसी और की मोहब्बत के समुन्दर से..
तो उसका दर्द और भड़क उठा,
उसके अरमानों का शोला और दहकने लगा..
और भड़काने लगा वो तुम्हें,
उस समुन्दर में डूब जाने को..
ताकि उसके अहम् को थोड़ी ठंडक मिले,
और सुकून से जी सको तुम..
हर रोज़ इस दुआ के साथ,
कि कोई उसके अरमानों की भी अर्थी उठाये,
जिसने तुम्हें पल-पल तड़प कर जीने को मजबूर किया था..

जाने कितने ही कसमों-वादों के बाद भी,
कितनी खोखली दुआओं के बाद भी,
जो उसकी ख़ुशी के लिए मांगी थी तुमने..
हर बार यही लगता है,
कि ये दुआएं ना कबूल हो..
वो रोये, तड़पे, तरसे,
किसी के प्रेम को..

मगर दिल की खुदगर्ज़ी यहाँ भी ख़त्म नहीं होती,
वो चाहता है कि जब वो तड़पे तो मेरी बाहों में ही तड़पे..
जिस पर रोये वो कन्धा मेरा हो..
और मैं देख सकूं उसकी मजबूरी,
और उसके टूटे दिल का दर्द..
और मिल जाये मुझे दो पल की राहत..
कि हम एक नहीं तो क्या हुआ,
हमारी किस्मत तो एक ही है..

‘स्क्रिप्ट’

उसकी डायरी के पन्नों में सिमटे उसके ख्वाबों के मलबे आज भी पुकार रहे हैं उस लड़के को..और वो लड़का किसी अलग ही जहाँ में मशगूल है..
वो आज तक नहीं समझ सकी कि वो कैसे उसके प्यार को ठुकरा सकता है..वो खूबसूरत थी इसलिए ये हक़ तो सिर्फ उसे था कि वो लड़कों का प्यार ठुकरा सके..
एक और लड़की थी बिल्कुल उसी की तरह..उसका भी दिल टूटा था उसी लड़के की ना से मगर वो खूबसूरत नहीं थी इसलिए ज़माने को बता भी ना सकी और ना ही उसे कोई सहानुभूति मिली..
और वो लड़का, दोनों के ख्वाबों का शाहरुख खान, दरअसल फैज़ल भाई (नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी) का फैन था और गंगा किनारे गाँजा पी कर मस्त था किसी अच्छी ‘स्क्रिप्ट’ की तलाश में..

छल

मैं राधा थी
मैं मीरा भी थी
मैं चाहती थी तुम्हें
पूजती भी थी
तुम्हें कृष्ण माना था मैंने
तुम मेरे नहीं थे मगर
तुमसे बरबस ही प्रेम था मुझे
तुम्हें घंटों तकते रहना अच्छा लगता था
मैं जब राधा रही
तब गोपियों से जलना स्वाभाविक था
जब मीरा भयी
गोपियों का ख्याल भी ना आया
तुम अपने रूप दिखाते रहे
मेरा प्रेम गहराता गया
तुम अपने चक्र घूमाते रहे
मेरा प्रेम चकराता गया
तुम्हें बस चाहा मैंने
तुम्हें बस पूजा मैंने
सब भूल कर
सब भुला कर
तुम मशगूल रहे अपनी रासलीला में
तुम मशहूर हुए अपनी रासलीला में
तुम मेरे कृष्ण थे
तुम्हें ऐसा ही होना था
मैं राधा बन भी तुम्हें ना पा सकी
मैं मीरा बन भी तुम्हें ना पा सकी
मैं जोगन बन बावरी हुई बस
मेरी सुध भी ना लेने आये तुम
तुम संपूर्ण रहे हमेशा
मैं हर रूप में अधूरी
तुम्हारे भाग्य में था महान होना
मेरे में ठुकरा दिया जाना
मानना कठिन है
मगर मुझको भी छला तुमने
तुम भी क्या करते
छलिया थे, छलिया ही रहे
दोष इतना सा रहा मेरा
प्रेम की परिचायक बनी
वो प्रेम जिसकी बात में भी
मैं तुम्हारे बिना अधूरी हूँ